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मई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दिल्ली की काॅपी-पेस्ट पत्रकारिता ...

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एक्जिट पोल के बारे में दो दिन पहले एक विश्लेषणात्मक लेख पढ़ने को मिला। साथी गजेंद्र जी   Gajendra Ricky Singh   ने अपने फेसबुक पर शेयर किया था एक टिप्पणी के साथ - ‘वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा के आईने से एक्जिट पोल।’ पोस्ट पढ़कर उस अनजान पत्रकार के अध्ययन से प्रभावित हुई। कुछ ही देर के बाद वही पोस्ट राज्यसभा टीवी के लिए काम कर चुके पत्रकार दिलीप खान   Dilip Khan   के वाॅ ल पर पढ़ा। पोस्ट पढ़कर शंका हुई तो सवाल जवाब किए। दिलीप खान ने कहा कि उनके पोस्ट इस तरह चोरी होते रहे हैं और अब वह इस पर हैरान नहीं होते।   पत्रकार योगेश मिश्रा ने दिलीप खान के पोस्ट करने के एक घंटे बाद वही पोस्ट किया है इसलिए योगेश मिश्रा पर संदेह किया जा सकता है कि यह उनकी मूल सामग्री नहीं है। योगेश मिश्रा बाकायदा अपने नाम से फेसबुक पेज चलाते हैं, जिसे 6107 लोगों ने लाइक किया है। मतलब उनके पोस्ट इतने यूजर की वाॅल तक पहुंचते हैं। वह Editor in chief   Newstrack.com   & Apna Bharat हैं। उन्होंने पोस्ट पर न अपना नाम लिखा है न दिलीप खान का। इस एक पोस्ट पर उन्हें 208 लाइक, 71 कमेंट और 72 शेयर मिल चुके हैं। सभी कमेंटों

नाकाबंदी

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बंद जिंदगी के दरबाजे से बाहर झांकने की कोशिश करता हूं तो जिंदगी किसी नाकाबंद इलाके में सुनसान पड़े मोहल्ले सी लगती है जो किसी दंगे के डर से सहमा पड़ा है।। नजर कभी गर दूर तक देख पाए तो नजर आता हैण्ण् बीचोंबीच गली में खेलता एक बेधड़क बच्चा जो अब अपनी बैठक की खिड़की के छेद से बाहर पसरे सन्नाटे को उम्मीद भरी आंखों से ताकता रहता है। जिसे इंतजार है अपनी बेधड़कए बेपरवाह शैतानियों के नए दौर का।। ऐसे ही किसी सन्नाटे का शिकार मैं नाकाबंदी लगाए बैठा हूं अपनी जिंदगी के इस मोहल्ले में अब कैद कर चुका हूँ खुद को नाउम्मीदी के किसी जहन्नुम में। जहां उस कैद बच्चे सा तो दिखता हूँ मैंण्ण्ण् मगर किसी नए दौर के शुरू होने की सारी ख्वाहिशें अब दफन हो चुकी हैं। अपनों से अलग.थलग इस नकली दुनिया और बेतहाशा काम में खुद को उलझाया मैंण्ण्ण्ण् जब लौट आता हूँ इस सूनसान कमरे मेंए रख लेता हूँ सिर कभी खालीपन की गोद मेंए तो बहुत सी यादें लोरियां सुनाने चली आतीं हैं मगर यहां कोई लोरी अब नींद नहीं लाती।। जाने कैसा हो गया हूँ मैं चाय.पकौड़ों सी कड़क.चटपटी जिंदगी किसी होटल वाली मैदा की रोटी म

पर्दे पर राजनीति नहीं राजनीतिक निष्ठा की जरुरत

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श्रीलंका में महिलाओं पर किसी भी तरह से चेहरा ढकने का प्रतिबंध लगा दिया गया।वैसे तो इस प्रतिबंध की जद में वे सभी महिलाएं आनी चाहिए जिन्हें अपने-अपने धर्मों की मान्यता, रीति या धार्मिक पहचान के नाम पर चेहरा या सिर ढकना पड़ता है।लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर मुस्लिम महिलाओं पर पड़ना तय है। अब ऐसे ही प्रतिबंध की खबर केरल से आई है, जहां अल्पसंख्यक महिला कॉलेज में बैन लगा है। भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम महिलाएं बुर्का या नकाब पहनती हैं, जबकि मध्य एशिया व यूरोप के अधिकांश देशों में रहने वाली मुसलमान महिलाएं हिजाब पहनती हैं।बुर्का में आंखों को छोड़कर सिर से लेकर पांव तक पूरा शरीर ढका होता है। जबकि हिजाब का काॅन्सेप्ट है कि महिला का चेहरा छोड़कर उसके बाल, कान, गला व वक्ष स्थल ढका रहे। यह बात याद रखें कि अभी भी श्रीलंका में महिलाएं सिर ढाक सकती हैं, पाबंदी सिर्फ चेहरा ढकने पर है। यानि वहां घूंघट या पर्दा करने वाली हिंदू महिलाएं, सिर ढकने वाली सिख, ईसाई और बौद्ध महिलाओं की हालत में बदलाव नहीं आएगा। इसका एक मतलब यह भी है कि मुस्लिम महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर जाने के लिए बुर्का पहनने की जगह अब हि

गुलाबी डिब्बे की औरतें ...

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मैं गुलाबी को लड़कियों का रंग कहे जाने का तर्क आज तक नहीं समझी। इसलिए इस रंग की चीज़ें लेने से बचती हूँ। पर मेट्रो का गुलाबी डिब्बा हर बार लुभाता है। हालांकि मुझे  यक़ीन है कि यह डिब्बा हम औरतों का अपना स्पेस सोचकर नहीं बल्कि सुरक्षा की सोच से बनाया गया होगा। पर इस डिब्बे में सफर करना कई अहसासों से भरा है। मैंने सुबह 8-9 बजे या इससे जल्दी कभी किसी बस/ट्रेन में सफर करतीं इतनी ज्यादा औरतें एक साथ नहीं देखीं। सुबह बच्चों को स्कूल या आदमी को काम पर भेजने वाली गृहस्थतनें टहलने भी कहां जा पाती हैं। बस तेज-तेज डग भरती मेहरी ज़रूर निकलती दिखती हैं रास्तों पर। मगर मेट्रो के इस गुलाबी डिब्बे की सुबह भी बड़ी गुलाबी है। अपनी-अपनी तरह सजी-धजी, अपने पर्स में खूब सारा सामान ठूंसे, एक जूठ के बैग में टिफिन रखे या अपने कंधे पर तनी वाला टिफिन लटकाए इस तेज रफ्तार गाड़ी में अपना संतुलन बनाये खड़ी दिखती हैं वर्किंग वीमेन। लोग झूठ कहते हैं कि चार औरतें पास खड़ी हों तो चुप नहीं रह सकतीं। मैंने तो ऐसी भीड़ वाले डिब्बे में भी सन्नाटा महसूस किया है। पर हां, सबके साथी फोन और ईयर फोन हैं। मुझे ये भीड़ अलग दुनियां में ले

एक दिन का मतदान अधिकारी .....

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कभी अजीब बेचैनी का दौर होता है जब आप कुछ बताना चाहे और लायक शब्द न मिले। एक सप्ताह से कुछ लिखना चाह रही हूं, पर जो सुना था उन भाव को शब्दों में नहीं ढाल पा रही।  कुछ ऐसी ही बैचेनी एक दोस्त के साथ भी थी पिछले सप्ताह। वह मिर्जापुर में किसी मतदान केंद्र पर चुनाव कराकर लौटा था पीओ-1 या प्रथम मतदान अधिकारी की हैसियत से। फोन उठाते ही उसकी तरफ से आवाज आई, ‘न्यूटन देखी है तूने?’  चुनाव के बाद लोग लहर या किसी अंडर करंट के बारे में पूछते-बताते हैं। लेकिन उसका सवाल एकदम अलग था। ‘नही’ ... का जवाब मिलने पर वह कुछ उलझ गया। कुछ रुककर उसने कहा, ‘अगर यह फिल्म देखी होती तो आज बड़ी आसानी से समझ पाती कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूं।’ उसके कैसा महसूस करने की कहानी चुनाव प्रक्रिया से जुड़े हर शख्स की कहानी हो सकती है। उसकी यह कहानी चुनाव प्रशिक्षण से शुरू होती है। उसने बताया- चुनाव आयोग ने पोलिंग पार्टी के सदस्यों की महीने भर ट्रेनिंग कराई थी। उन्हें चुनाव अधिकारी के अधिकार, आचार संहिता, ईवीएम की पूरी प्रक्रिया और लोकतंत्र में चुनाव की जरूरत के विचारों से पूरी तरह भर दिया था। दोस्त बोला, ‘तब तो ऐसा महसूस हो

मर्दों के घरों की औरतें जब निकलती हैं कौम के लिए ...

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औरतें मर्दों के घरों में पैदा होती हैं। वे दुनिया के किसी भी अल्पसंख्यक से ज्यादा बुरी स्थिति में हैं क्योंंकि उनका कोई समुदाय, कोई एक देश नहीं, कोई एक संगठन या कोई नेता नहीं होता।  अश्वेत, दलित, मुसलमान, यहूदी और दुनिया की तमाम अल्पसंख्यक कौमें एक साथ रहती हैं इसलिए एकसाथ दिखती हैं। वे बहुत आसानी से संगठित हो सकती हैं, उनके मुद्दे, उनकी परेशानियां लगभग एक हैं। इसलिए इन कौमों को वोटर के रूप में अहमियत मिलती है, उनके नेता भी होते हैं।  औरतें तमाम जात - धरम के आदमियों के घरों  में पैदा होती हैं। लड़कियों को अलग - अलग सोच, माहौल, पहनावा, परंपरा में पैदा किया जाता है, पोसा जाता है, औरत बनाया जाता है। अल्पसंख्यक कौमों के घरों में वे बहुसंखयक घरों की औरतों से ज्यादा कुचली जाती हैं। इन औरतों को बहुसंख्यक के अल्पसंख्यक पर दवाब को तो सहना ही पड़ता है, साथ ही उसका अपना अल्पसंख्यक पिता या पति भी उन्हें कुचलता है। लड़कियों की सहेलियां भी तो उनकी जात, धर्म या मोहल्ले की ही होती हैं। शादी के बाद सहेलियां छूटती हैं और पति के दोस्त / रिश्तेदारों की औरतें सहेलियां बन जाती हैं। आम औरतें अपने जीवन मे

मोदी-ममता की समानता और चुनाव क्यों...

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आज अंतिम चरण का चुनाव है, इस मौके पर पिछले रविवार का चुनाव चरण याद आ रहा है। दिल्ली ने वोट डालने में उत्साह नहीं दिखाया था। मतदान में कुल साठ फीसद ही वोट पड़े जो 2014 से छह फीसद कम है। उस शाम जब चुनाव के ये आंकड़े आ रहे थे तो एक वरिष्ठ साथी गुस्से से उबल गए। बोले- इन दिल्लीवालों पर तो कोड़े बरसाए जाएं, देश में किसी भी राज्य से ज्यादा फायदे पाते हैं फिर भी वोट देने घर से नहीं निकलते।  उन साथी का गुस्सा जायज था हालांकि किसी भी तरह की सजा के लिए ऐसा तरीका अपनाने के समर्थक वह खुद भी नहीं होंगे। उसी दिन एक दोस्त पर बहुत गुस्सा हो गई , जब पता लगा कि शहर में होने पर भी वह वोट देने नहीं गईं। उन्होंने कारण दिया कि बीजेपी का प्रत्याशी स्तरीय नहीं था, कांग्रेस या आप को वह वोट नहीं करना चाहती थीं और नोटा करने में उन्हें कोई फायदा नहीं नजर आया।  जहां पूरे देश की हर लोकसभा सीट पर बीजेपी की ओर से खड़ा एक-एक प्रत्याशी मोदी जी के नाम पर वोट मांग रहा हो, वहीं मोदी से प्रभावित मेरी दोस्त वोट देने नहीं गईं! यहां इस मामले के आधार पर सैंपलिंग करते हुए यह दावा नहीं करूंगी कि पूरे देश में प्रत्याशियों से