प्रिय हिन्दी......
अंग्रेजी 'ज़रूरत' है , तो हिन्दी है 'शौक' 'ज़रूरत' के लिए फेंकने पड़ते हैं 'हाथ- पैर' जबकि 'शौक' होता है 'प्रयोगी' ... बनाता है 'आविष्कारी '। इसलिए तो तुम्हारी कितनी 'सखी-भाषाऐं' उपजी और कितने ही शब्द भी ... कितनों को 'शौक' ने बनाया ;छीट-पुट' कवि , और तुम्हारा 'पागलपन' बड़ा तो ये हो गए 'साहित्यकार' और 'अमर' होती गयी तुम ॥ प्रिय हिन्दी ! अच्छा है कि तुम नहीं बनी किसी की 'ज़रूरत' , क्योकि जरूरते पूरी होते ही, 'खो' बैठी हैं अपना महत्व ॥ जबकि 'शौक' 'रचनात्मकता' में अपनी , चहलकदमी करते रहते हैं दिमागों में .... बोली चाहे जो हो , मायने रखती है 'सोच' , और हम तो सोचते ही हैं हिन्दी में। तुम मात्र एक भाषा नही, 'प्रक्रिया' हो सोचने की । इसलिए भी कहती हूँ कि , प्रिय हिन्दी !, अच्छा है कि तुम नहीं बनी किसी कि ज़रूरत ॥ - शिवांगी (14.09.2014)