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प्रिय हिन्दी......

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अंग्रेजी  'ज़रूरत' है , तो हिन्दी है 'शौक'  'ज़रूरत' के लिए फेंकने पड़ते  हैं 'हाथ- पैर' जबकि 'शौक' होता है 'प्रयोगी' ... बनाता है 'आविष्कारी '। इसलिए तो तुम्हारी कितनी 'सखी-भाषाऐं' उपजी और कितने ही शब्द भी ... कितनों को 'शौक' ने बनाया ;छीट-पुट' कवि , और तुम्हारा 'पागलपन' बड़ा तो ये हो गए 'साहित्यकार' और 'अमर' होती गयी तुम ॥ प्रिय हिन्दी ! अच्छा है कि तुम नहीं बनी किसी की 'ज़रूरत' , क्योकि जरूरते पूरी होते ही, 'खो' बैठी हैं अपना महत्व ॥ जबकि 'शौक' 'रचनात्मकता' में अपनी , चहलकदमी करते रहते हैं दिमागों में .... बोली चाहे जो हो , मायने  रखती है 'सोच' , और  हम तो सोचते ही हैं हिन्दी में। तुम मात्र एक भाषा नही, 'प्रक्रिया' हो सोचने की  । इसलिए भी कहती हूँ कि , प्रिय हिन्दी !, अच्छा है कि तुम नहीं बनी किसी कि ज़रूरत ॥                     - शिवांगी                (14.09.2014)             

शहर होते हैं सभी एक से ही ...!

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                                                 वही दफ्तर  , वही  बा बू     वही रंग -रोगन दीवारों पर 'पान की पीकों' का ॥  वही तेवर , सफारी सूटों से बाहर 'झाँकती' वैसी ही तोंदे , 'कल आना ' वाला वही पुराना जुमला भी ,, फिर एक चाय की 'मनुहार' , और कुछ 'हरी पत्ती' ... अच्छा इसलिए ही , शहर होते हैं सभी एक से ही ... !     कुछ वैसे ही चौराहे  और बीचों बीच लगी 'महापुरुषों' की मूर्तियाँ भी  वैसी ही ।   ट्रेफिक पुलिस को 'धता' बता ... 'धड़ल्ले' से निकलती वैसी ही गाडियाँ भी।  पीं -पीं की आवा जे और धक्कमपेल के बाद होते 'वही बवाल', मन में अब आ ता अब एक सवाल ... क्यों , शहर होते हैं  सभी एक से ही ... ?       कुत्ते बक री और लोगों के,  चहलकदमी की एक ही वही जगह ।  नव-युगलों के मिलन का ब स वही है सरलतम स्थान भी ।  पुलिस वालों की 'डंडा - पिटाई' , कौन है ये तुम्हारा......... 'भाई' ?   'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का 'तमाशा' देखते,  वैसे ही ये पार्

कमर की झिल्ली...

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 suraksha.... pta nahin wo bachchi is sparsh ko ab kabhi mehsus bhi kar payegi एक और केस है वलात्कार का..., चलों मिल लो।  घर पहुंचनें पर हड़वड़ाहट के साथ अभी-अभी सोई नींद से जगी वो , .... सामनें दिखीं अपनी वही दीदी और एक नयी सी लड़की । हाल-चाल के दौर में छिड़ी बात 'दो साल पहले' के एक दोपहर की...। ' ६ साल की थी तब, अब तो दीदी सबके पास जानें लगै है..., स्कूल भी जाबै, नाम लिख लेत है, हमारौ भी... अब ठीक है।अबही मिलवात है...।'  पैप्सी की दो बोतले और कुछ पकौड़ियों से भरी एक पन्नी..., ...' जे है वो लल्ली'। ,,... इधर आओ मेरे पास... ,  सुनते ही चिपक गई  वो अब अपनी अम्मी से। 'जे भी स्कूल की मेडम की तरह उगाहड़ेगीं मेरी फ्राक...!' ... उसने बस सोचा सहमे सहमे..., लेकिन अम्मी समझ गई और वो दीदी भी...।  लेकिन ये 'नसमझ- कमअक्ल' नई सी लड़की  नही समझी 'कमर की उस झिल्ली' को...। उसने वुलाया पास,... लगाया गले,... चूमां पसीनें से भीगा उसका गाल ...और पकौड़ी के कुछ टुकडों को चवाते-चवाते धीमें से 'उठा दी फ्राक'... ।  'कमर की

देखता हूँ अभी ......

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'एक औरत है चौराहे पर ,, रो रही है फिरती लावारिस पाँच दिन से ' मैंने कहा ,,, बोला अखबार 'देखता हूँ अभी' , और फिर बोला 'किसी और' को भी ,,, "नारी निकेतन है एक रास्ता अगर नहीं है कोई 'अपना' उसका" ,, 'उसने' कहा और आयी साथ मेरे ॥ डरी सहमी 'वो' रोते हुए बता रही थी अपनी 'कहानी' I 'बोली' समझ पाना हो रहा था मुश्किल,,,  'किसी और देस की है',,, कहा दिमाग ने। मगर औरते 'अपने और दूसरे' मर्दो से झेलने के बाद 'मर्दगिनी' ,,,  रोते हुए दिखती है एक सी ही न,, सो पहुचाया उसे पुलिस के पास ...॥ ' भाषाविद' नहीं हैं हम मैडम, कहाँ की है ...हम कैसे करे पता?  ... उन्होने कहा॥ ... फिर एक लंबी बहस और तैयार हुए वो पहुंचाने उसे उसके घर,,,,॥ खुदका , बच्चे, नन्द, देवर, सबका नाम है पता ... लेकिन आदमी ????  वो तो हैं न 'लल्ला का पापा' ...! पति का नाम होता है क्या ... 'उनके'- 'इनके'... कहके ही कट जाती  है ज़िंदगियाँ! ...अब कोतवाली में है 'वो' ... , इंतज़ार में की कब प