संदेश

सितंबर, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खाली बोतल

चित्र
  हलचल से हादसों तक, तलहके से सन्नाटों तक। आबादी में पसरी बीरानियां, और खाक में मिली ख्वाहिशें। रोंगटे खड़े कर देती, अपाहिज सी आवाजें दिल में आते उन तमाम खतरनाक ख्यालों के बीच अपनों को पहचानने की कोशिश में ये निगाहें... खोजती हैं.. चौराहे से घर को जाती गली के नुक्कड़ पर खड़े आम के पेड़ को। उस पुरानी शानदार हवेली के फाटक को, जिस पर लटकते, झूला झूलते, खिसियाए उस दरबान के डंडे से भगाने पर, चूरन वाले चाचा की दुकान के मुहाने पर.. घंटों बैठ,,, उन आशाओं के झुरमुट जैसी ऊंची इमारतों को अपना बनाने का ख्वाब कभी देखा था मैंने। आज उन्हीं इमारतों के दरार पड़कर ढह जाने पर, ख्वाब जैसे किरची-किरची खिड़की के टूटे कांच की तरह बिखर से गए हैं। तबाही के और भी निशां हैं आसपास। मगर पैर हैं कि जैसे आगे बढ़ना ही नहीं चाहते। जकड़ से गए हो, जैसे आसपास ही कहीं किसी मृत शरीर से रूबरू होने का डर सता रहा हो।। तभी किसी बिलखते मासूम ने जकड़े पांव में जान से भर दी। अटे-पड़े शव, दबे-कुचले पांव के बीच जिंदगी का एक निशां हिम्मत बंधा गया। मृत मां की गोद में सुरक्षित यह

एक माह बाद आज .....

चित्र
                बची-खुचीं उम्मीदों को भी आज सरकारी क़फन में दफन कर दिया जाएगा। आखिर डूब ही जाएंगे  आशा के अधबुझे दीप भी आज उस जलजले के बाद  आंखों में रोज आ उठती भयानक बाढ़ में। हर रोज तुम्हारे जिंदा होने की मुर्दा होती मुरादों  जुबां से निकलने को तैयार न होते अंदेशों के बीच आज पूरी तरह से खो चुकी होऊंगी मैं तुम्हें। ..और तुम्हारे इस अंतिम संस्कार के बाद अस्थियों की जगह मुआवजे के कुछ सरकारी पैसे  रख दिये जाएंगे मेरे हाथों पर..!! उस विनाश लीला के एक माह बाद आज, पूरी तरह से बंजर और अकेला हो जाऊंगा मैं जिंदगी भर के लिए। उस तूफान में अपनी पीढ़ियों को  अचानक समाहित होते देखने का वो भयावह मंजर अब किसी रोज मेरे अंतिम दिन का कारण बनेगा।  पर कोई शेष न होगा मुझे मुखाग्नि देने के लिए भी। तब मेरे बच्चों,  कहीं किसी पहाड़ी पर  चील कौवे की नोंची तुम्हारी लाशों के बदले  मिली मुआवजे की रकम से ही शायद मुझे इंतजाम करना पड़ेगा.. खुद ही अपने अंतिम संस्कार का।   अब सकट, राखी और करवाचौथ पर, आंखों की नमी में, हलक में अटके कुछ शब्दों में, भारतीय सेना के फौलादी जज्बों में खानापूरी करते

पागल लड़कियां ............

चित्र
                                                            लड़कियां असल में पागल होती हैं,                                                             डांट पिटाई पर बस हंस देती ,                                                             कोई लाड़ करे तो रोती हैं।                                                             जो डरा सके उसे बड़ा समझती,                                                             कैद को सुरक्षा कहतीं हैं।                                                             खुद के लिए खुद ही सीमाए बोती,                                                             फिर सीमाओ को किस्मत कहतीं हैं।                                                             असल में लड़कियां पागल होती हैं...!                                                                      - शिवांगी                                                                            (11 जुलाई 2015)

'लड़कियां' ...उनकी नजर में

चित्र
  आज कुछ कुल्टाए मिली, कुछ चरित्रहीन भौंड़ी सी लड़कियां भी। अतिविश्वास की मारी घूम रही थी, सड़क बाजार के अलावा भी कई जगह। मैंने बस नजर उठाकर देखा भर, और अपनी औकात बता दी इन्हें। अब सिर्फ टीचर नहीं रह गई हैं ये, दफ्तरों के रिसेप्शन से सीईओ की कुर्सी तक काबिज़ है। जब भी मिलता हूँ तो पहले चरित्र नापता हूँ, बड़े ओहदे वालियों की मुस्कानों में, छिपा देखता हूँ वो रास्ता जिससे यहां तक पहुंची होंगी। खुद की क्षमता का डंका , पीटने में भले माहिर होती हैं ये। लेकिन जानता हूँ मैं, हमारी सेवा बिना कहां पहुंचने वाली हैं ये कहीं। हर रोज ऐसी ही कहानियां भरता हूँ, माँ और बहन के कानों में, ताकि चेता सकूं कि 'घर में ही बैठो' ।। - शिवांगी (15/07/15)

औरत का अस्तित्व क्यूँ बस इज्ज़त भर ......

तुम्हे देखके ऐसा लगा कि कोई गांव की औरत सर ढांके बैठी हो....! पास बैठी एक लड़की पर ये तंज सुन जाहिर तौर पर सबकी तरह प्रतिक्रिया दी मैंने भी। मगर फिर एक ने कहा कि क्या तुम्हारी मां-बहन पर्दा नहीं करती?! (लगा कि पर्दा जैसे कथित इज्जत का सर्वमान्य परिचायक हो)..। बात यहां तक भी ठहरती तो ठीक था... 'सर क्या आपकी मां-बहन मिनी स्कर्ट में रहती हैं?'.... लड़की का कसैला सवाल... सुनने बालों में से कुछ नें मन में तो कुछ ने मुंह पर बोला...'बहुत अच्छे'।वो व्यक्ति खुद की खिल्ली पर चुप था... और वो लड़की अब बराबरी पर संतुष्ट दिखी। ...बात यहीं खत्म हो जाती तो क्या बात थी। अचानक छोटी बहन के पहले दिन डिग्री कालेज जानें का अनुभव याद आया....। 'अपनी मां-बहन को घर भेजना, मेरा भाई अच्छी सेवा करेगा उसकी...' उसने साइकिल से वापस आते समय एक लड़के को जवाब देते हुए बोला था। लड़के ने छेड़ते हुए सेवा का मौका देने की बात कही थी उसे । मैंने सुना तो डांटा उसे... बोली घर में तो सबनें मुझे 'वेरी गुड...ब्रेव गर्ल कहा'.. फिर आप इसे गलत क्यूं कह रही हो?!... छोटी बहन और वो लड

क्या है शिक्षा के अधिकार के सही मायनें .....?

                                                                                                                       8.sep.2015 बरेली में आज कथित युवा सोच वाले सीएम आ रहे हैं। स्मार्ट सिटी बरेली के चुस्त नगर निगम की सक्रियता इन दिनों चरम पर है, जिसे देख कोफ्त हो रही थी। लेकिन आज मुख्यमंत्री आगमन के चलते शिक्षण संस्थानों को बंद कर देना असंवेदनशीलता की हद है, जिस पर मुझे कड़ी आपत्ति है । सरकारें शिक्षा पर संवेदनशील दिखने की लाख कोशिश करें... लेकिन ये वाहियाद स्तर तक असंवेदनशील हैं। मानसिक रूप से अनपढ़ शिक्षाधिकारी क्यूं इन सामंती आदेशों का विरोध नहीं करते! एक दिन स्कूल की छुट्टी क्यूं हमें आम सी बात लगत ी है। स्कूल जैसी संस्थाए तो भीषण तबाही भरे दौर में भी चलनी चाहिए। एक राजनेता का आगमन भर क्यूं शिक्षण संस्थानों को सबसे पहले प्रभावित करता है? इसका जवाब सुरक्षा है तो जानना चाहूंगी कि आम दिनों में कितनों स्कूल की सुरक्षा के लिए पुलिस तैनात रह पाती है.... हो सकता है मेरी बात पागलपन लगे, हो सकता है...ये अवकाश किसी परिवार को एक दिन का सुकून दे जाए...या छात्र और शिक्षकों की

सनकी दुनिया

चित्र
  आज़ादी की छटपटहट ...... ( पेंटर शिबली की ये पेंटिंग खरीद पाना मुश्किल था सो फोटो ही ले पायी)  ज़िंदगी सनक है ...एक ज़िद भी, जिसे घर में मक्कारी कहते हैं। बागीपन खून में नहीं होता , रिश्तों में विश्वास का घटा प्रतिशत, चुपके से बना जाता है बागी ॥ जब बदलती सोच, छितरा देती है परिवार से। लक्ष्य हो जाते जीने का मात्र कारण। स्वार्थी सुनना आम सा लगता, ज़िंदगी बेचैन लेकिन स्थिर होती है तब॥ कविताओं से गायब होता रस, सपनों में आती हक की लड़ाई ... तब पागलपन लगती ज़िंदगी, परम्पराओं से उचटा मन, चुप्पी साधना समझता बेहतर॥ सनकी दुनिया की बेचैन ख्वाहिशे, दूसरों से सिकुड़ खुद में फैलता जीवन, अपनी ही दुनिया होती तब। ऐसी सनकी दुनिया जिसका वास्ता , नहीं करना चाहती तुमसे कभी ॥                     - शिवांगी (29/08/2015)