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2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छात्र राजनीति में दम दिखाने उतरीं ढाई फुट की सोनाली

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प्रकाशन तिथि : 26 अगस्त, 2019 सोनाली जैसी लड़कियां ही विशेष वर्ग की लड़कियों के लिए प्रेरणा का उदाहरण बनेंगी

#letsclickthelife @sangambank

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#letsclickthelife  #kumbh2019 #sangambank  photographed by shivangi

दिल्ली की काॅपी-पेस्ट पत्रकारिता ...

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एक्जिट पोल के बारे में दो दिन पहले एक विश्लेषणात्मक लेख पढ़ने को मिला। साथी गजेंद्र जी   Gajendra Ricky Singh   ने अपने फेसबुक पर शेयर किया था एक टिप्पणी के साथ - ‘वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा के आईने से एक्जिट पोल।’ पोस्ट पढ़कर उस अनजान पत्रकार के अध्ययन से प्रभावित हुई। कुछ ही देर के बाद वही पोस्ट राज्यसभा टीवी के लिए काम कर चुके पत्रकार दिलीप खान   Dilip Khan   के वाॅ ल पर पढ़ा। पोस्ट पढ़कर शंका हुई तो सवाल जवाब किए। दिलीप खान ने कहा कि उनके पोस्ट इस तरह चोरी होते रहे हैं और अब वह इस पर हैरान नहीं होते।   पत्रकार योगेश मिश्रा ने दिलीप खान के पोस्ट करने के एक घंटे बाद वही पोस्ट किया है इसलिए योगेश मिश्रा पर संदेह किया जा सकता है कि यह उनकी मूल सामग्री नहीं है। योगेश मिश्रा बाकायदा अपने नाम से फेसबुक पेज चलाते हैं, जिसे 6107 लोगों ने लाइक किया है। मतलब उनके पोस्ट इतने यूजर की वाॅल तक पहुंचते हैं। वह Editor in chief   Newstrack.com   & Apna Bharat हैं। उन्होंने पोस्ट पर न अपना नाम लिखा है न दिलीप खान का। इस एक पोस्ट पर उन्हें 208 लाइक, 71 कमेंट और 72 शेयर मिल चुके हैं। सभी कमेंटों

नाकाबंदी

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बंद जिंदगी के दरबाजे से बाहर झांकने की कोशिश करता हूं तो जिंदगी किसी नाकाबंद इलाके में सुनसान पड़े मोहल्ले सी लगती है जो किसी दंगे के डर से सहमा पड़ा है।। नजर कभी गर दूर तक देख पाए तो नजर आता हैण्ण् बीचोंबीच गली में खेलता एक बेधड़क बच्चा जो अब अपनी बैठक की खिड़की के छेद से बाहर पसरे सन्नाटे को उम्मीद भरी आंखों से ताकता रहता है। जिसे इंतजार है अपनी बेधड़कए बेपरवाह शैतानियों के नए दौर का।। ऐसे ही किसी सन्नाटे का शिकार मैं नाकाबंदी लगाए बैठा हूं अपनी जिंदगी के इस मोहल्ले में अब कैद कर चुका हूँ खुद को नाउम्मीदी के किसी जहन्नुम में। जहां उस कैद बच्चे सा तो दिखता हूँ मैंण्ण्ण् मगर किसी नए दौर के शुरू होने की सारी ख्वाहिशें अब दफन हो चुकी हैं। अपनों से अलग.थलग इस नकली दुनिया और बेतहाशा काम में खुद को उलझाया मैंण्ण्ण्ण् जब लौट आता हूँ इस सूनसान कमरे मेंए रख लेता हूँ सिर कभी खालीपन की गोद मेंए तो बहुत सी यादें लोरियां सुनाने चली आतीं हैं मगर यहां कोई लोरी अब नींद नहीं लाती।। जाने कैसा हो गया हूँ मैं चाय.पकौड़ों सी कड़क.चटपटी जिंदगी किसी होटल वाली मैदा की रोटी म

पर्दे पर राजनीति नहीं राजनीतिक निष्ठा की जरुरत

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श्रीलंका में महिलाओं पर किसी भी तरह से चेहरा ढकने का प्रतिबंध लगा दिया गया।वैसे तो इस प्रतिबंध की जद में वे सभी महिलाएं आनी चाहिए जिन्हें अपने-अपने धर्मों की मान्यता, रीति या धार्मिक पहचान के नाम पर चेहरा या सिर ढकना पड़ता है।लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर मुस्लिम महिलाओं पर पड़ना तय है। अब ऐसे ही प्रतिबंध की खबर केरल से आई है, जहां अल्पसंख्यक महिला कॉलेज में बैन लगा है। भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम महिलाएं बुर्का या नकाब पहनती हैं, जबकि मध्य एशिया व यूरोप के अधिकांश देशों में रहने वाली मुसलमान महिलाएं हिजाब पहनती हैं।बुर्का में आंखों को छोड़कर सिर से लेकर पांव तक पूरा शरीर ढका होता है। जबकि हिजाब का काॅन्सेप्ट है कि महिला का चेहरा छोड़कर उसके बाल, कान, गला व वक्ष स्थल ढका रहे। यह बात याद रखें कि अभी भी श्रीलंका में महिलाएं सिर ढाक सकती हैं, पाबंदी सिर्फ चेहरा ढकने पर है। यानि वहां घूंघट या पर्दा करने वाली हिंदू महिलाएं, सिर ढकने वाली सिख, ईसाई और बौद्ध महिलाओं की हालत में बदलाव नहीं आएगा। इसका एक मतलब यह भी है कि मुस्लिम महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर जाने के लिए बुर्का पहनने की जगह अब हि

गुलाबी डिब्बे की औरतें ...

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मैं गुलाबी को लड़कियों का रंग कहे जाने का तर्क आज तक नहीं समझी। इसलिए इस रंग की चीज़ें लेने से बचती हूँ। पर मेट्रो का गुलाबी डिब्बा हर बार लुभाता है। हालांकि मुझे  यक़ीन है कि यह डिब्बा हम औरतों का अपना स्पेस सोचकर नहीं बल्कि सुरक्षा की सोच से बनाया गया होगा। पर इस डिब्बे में सफर करना कई अहसासों से भरा है। मैंने सुबह 8-9 बजे या इससे जल्दी कभी किसी बस/ट्रेन में सफर करतीं इतनी ज्यादा औरतें एक साथ नहीं देखीं। सुबह बच्चों को स्कूल या आदमी को काम पर भेजने वाली गृहस्थतनें टहलने भी कहां जा पाती हैं। बस तेज-तेज डग भरती मेहरी ज़रूर निकलती दिखती हैं रास्तों पर। मगर मेट्रो के इस गुलाबी डिब्बे की सुबह भी बड़ी गुलाबी है। अपनी-अपनी तरह सजी-धजी, अपने पर्स में खूब सारा सामान ठूंसे, एक जूठ के बैग में टिफिन रखे या अपने कंधे पर तनी वाला टिफिन लटकाए इस तेज रफ्तार गाड़ी में अपना संतुलन बनाये खड़ी दिखती हैं वर्किंग वीमेन। लोग झूठ कहते हैं कि चार औरतें पास खड़ी हों तो चुप नहीं रह सकतीं। मैंने तो ऐसी भीड़ वाले डिब्बे में भी सन्नाटा महसूस किया है। पर हां, सबके साथी फोन और ईयर फोन हैं। मुझे ये भीड़ अलग दुनियां में ले

एक दिन का मतदान अधिकारी .....

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कभी अजीब बेचैनी का दौर होता है जब आप कुछ बताना चाहे और लायक शब्द न मिले। एक सप्ताह से कुछ लिखना चाह रही हूं, पर जो सुना था उन भाव को शब्दों में नहीं ढाल पा रही।  कुछ ऐसी ही बैचेनी एक दोस्त के साथ भी थी पिछले सप्ताह। वह मिर्जापुर में किसी मतदान केंद्र पर चुनाव कराकर लौटा था पीओ-1 या प्रथम मतदान अधिकारी की हैसियत से। फोन उठाते ही उसकी तरफ से आवाज आई, ‘न्यूटन देखी है तूने?’  चुनाव के बाद लोग लहर या किसी अंडर करंट के बारे में पूछते-बताते हैं। लेकिन उसका सवाल एकदम अलग था। ‘नही’ ... का जवाब मिलने पर वह कुछ उलझ गया। कुछ रुककर उसने कहा, ‘अगर यह फिल्म देखी होती तो आज बड़ी आसानी से समझ पाती कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूं।’ उसके कैसा महसूस करने की कहानी चुनाव प्रक्रिया से जुड़े हर शख्स की कहानी हो सकती है। उसकी यह कहानी चुनाव प्रशिक्षण से शुरू होती है। उसने बताया- चुनाव आयोग ने पोलिंग पार्टी के सदस्यों की महीने भर ट्रेनिंग कराई थी। उन्हें चुनाव अधिकारी के अधिकार, आचार संहिता, ईवीएम की पूरी प्रक्रिया और लोकतंत्र में चुनाव की जरूरत के विचारों से पूरी तरह भर दिया था। दोस्त बोला, ‘तब तो ऐसा महसूस हो

मर्दों के घरों की औरतें जब निकलती हैं कौम के लिए ...

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औरतें मर्दों के घरों में पैदा होती हैं। वे दुनिया के किसी भी अल्पसंख्यक से ज्यादा बुरी स्थिति में हैं क्योंंकि उनका कोई समुदाय, कोई एक देश नहीं, कोई एक संगठन या कोई नेता नहीं होता।  अश्वेत, दलित, मुसलमान, यहूदी और दुनिया की तमाम अल्पसंख्यक कौमें एक साथ रहती हैं इसलिए एकसाथ दिखती हैं। वे बहुत आसानी से संगठित हो सकती हैं, उनके मुद्दे, उनकी परेशानियां लगभग एक हैं। इसलिए इन कौमों को वोटर के रूप में अहमियत मिलती है, उनके नेता भी होते हैं।  औरतें तमाम जात - धरम के आदमियों के घरों  में पैदा होती हैं। लड़कियों को अलग - अलग सोच, माहौल, पहनावा, परंपरा में पैदा किया जाता है, पोसा जाता है, औरत बनाया जाता है। अल्पसंख्यक कौमों के घरों में वे बहुसंखयक घरों की औरतों से ज्यादा कुचली जाती हैं। इन औरतों को बहुसंख्यक के अल्पसंख्यक पर दवाब को तो सहना ही पड़ता है, साथ ही उसका अपना अल्पसंख्यक पिता या पति भी उन्हें कुचलता है। लड़कियों की सहेलियां भी तो उनकी जात, धर्म या मोहल्ले की ही होती हैं। शादी के बाद सहेलियां छूटती हैं और पति के दोस्त / रिश्तेदारों की औरतें सहेलियां बन जाती हैं। आम औरतें अपने जीवन मे

मोदी-ममता की समानता और चुनाव क्यों...

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आज अंतिम चरण का चुनाव है, इस मौके पर पिछले रविवार का चुनाव चरण याद आ रहा है। दिल्ली ने वोट डालने में उत्साह नहीं दिखाया था। मतदान में कुल साठ फीसद ही वोट पड़े जो 2014 से छह फीसद कम है। उस शाम जब चुनाव के ये आंकड़े आ रहे थे तो एक वरिष्ठ साथी गुस्से से उबल गए। बोले- इन दिल्लीवालों पर तो कोड़े बरसाए जाएं, देश में किसी भी राज्य से ज्यादा फायदे पाते हैं फिर भी वोट देने घर से नहीं निकलते।  उन साथी का गुस्सा जायज था हालांकि किसी भी तरह की सजा के लिए ऐसा तरीका अपनाने के समर्थक वह खुद भी नहीं होंगे। उसी दिन एक दोस्त पर बहुत गुस्सा हो गई , जब पता लगा कि शहर में होने पर भी वह वोट देने नहीं गईं। उन्होंने कारण दिया कि बीजेपी का प्रत्याशी स्तरीय नहीं था, कांग्रेस या आप को वह वोट नहीं करना चाहती थीं और नोटा करने में उन्हें कोई फायदा नहीं नजर आया।  जहां पूरे देश की हर लोकसभा सीट पर बीजेपी की ओर से खड़ा एक-एक प्रत्याशी मोदी जी के नाम पर वोट मांग रहा हो, वहीं मोदी से प्रभावित मेरी दोस्त वोट देने नहीं गईं! यहां इस मामले के आधार पर सैंपलिंग करते हुए यह दावा नहीं करूंगी कि पूरे देश में प्रत्याशियों से

युद्ध चिल्लाने वालों हमें तुम्हारी शुभकानाएं नहीं चाहिए

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औरतों आज तुम्हें जब कोई मर्द शुभकामनाएं दे, तो मत लेना ... पलटकर जवाब दे देना कि एक सप्ताह पहले तुम ही थे जो बगैर आधी आबादी की इच्छा जाने ' युद्ध -युद्ध 'चिल्ला रहे थे। तुम कह रहे थे कि मोदी युद्ध करो, बदला लो .. तुम्हारी तरह ही हमारा सीना भी छप्पन इंची है, हम में भी पौरुष भरा है, तुम्हारे सब जवान अगर शहीद भी हो गए तो हम पहुंचेंगे सीमा पर , हमारा हर कतरा भारत मां के लिए होगा। तुम ऐसे अपने जोश में क्या यह सोच रहे थे कि जिन औरतों के हाथ पैर काटकर तुमने उन्हें अपनी मां, लुगाई , बहु - बेटी बनाकर बैठा रखा है घरों में... जो मोहल्ले की दुकान से कपड़े धोने का साबुन लाने के लिए भी अपने लल्ला के पापा का इंतजार करती हैं ... तुम्हारी मौत के बाद क्या होगा उनका ? क्या वो सीख पाएंगी घूंघट हटाकर बेधड़क उन दुकानों पर जा पाना ? क्या राशन खरीदने के लिए उनके पास बचा रहेगा रुपया ? बिना जेबों के कपड़े पहनने वाली ये औरतें क्या कमाना सीख पाएंगी अचानक से ? क्या उन्हें अपने उसी लल्ला की बोतल में चाय भरने के लिए भी खुद को गिरवी नहीं रखना पड़ेगा किसी लाला के पास? या नहीं जाना पड़ेगा किसी बड़े शहर

फैसला

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किसी को घर का रास्ता दिखा दिया, कोई दुख में छोड़ घर चला गया। कोई बस सप्ताह भर बैठा सोचता रहा, इस्तीफे में क्या लिखे, फिर वो इस्तीफा लेकर किधर जाये। वो इस्तीफे में लिखे गालियां, लाचारी, बेइज़्ज़ती या लिखे आठ घंटे की छुट्टी वो लिखे चाटूकारिता या लिखे मैं एक स्तंभ। फिर लिखकर डाक भेजे या फिर पोस्ट करे आभासी दीवार पर। डाक दबा दी गयी या पोस्ट शेयर हुई तो क्या करे.. उसने सोचा .. सिगरेट पीते पीते , और अगले दिन लौट गया दफ्तर।। - शिवांगी, 5 मार्च 2018 

time calls for feminist system

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अखबार में किसी पैरा का अंतिम शब्द किसी नई पंक्ति में अकेला रह जाए तो उसे अंग्रेजी में 'विडो वर्ड ' कहते हैं। विडो यानी विधवा ... वो औरत जिसका आदमी चल बसा हो। किसी अखबार के पन्ने के किसी पैरे का अकेला लटका शब्द विधवा के समान किस तरह हो गया ?! ज़ाहिर है कि पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में यह शब्द पुरुषवादी मानसिकता से ही निकलकर शब्दावली का ' अभिन्न अंग ' बन गया होगा ... । इस कारण ही इस अकेले शब्द का नाम विडोअर वर्ड यानी विधुर शब्द नहीं है। ( उदाहरण के लिए इस तस्वीर में 'increases' शब्द को देख लें, एक अकेला लटका शब्द....।)  इसे लिखते हुए याद आ रहा है कि प्रधानमंत्री ने कुछ दिन पहले सोनिया गांधी को विधवा कहा था। कहा था - गरीबों के रुपए कौन सी विधवा खा गई । उस पर कुछ मीडिया संस्थानों ने आलोचना की, जो कि ज़रूरी था। लेकिन मेरा कहना यह है कि यह क्षेत्र खुद पूरी तरह पितृसत्ता को ढोह रहा है, बीट ( रिपोर्टर का कार्य क्षेत्र / विभाग) के बंटवारे की बात हो, महिला पत्रकारों की सैलरी की या फिर ऐसी शब्दावली की। अब चैनलों पर हो रही चीख पुकार, मार पीट, हिंसक भाषा, युद

'भारतीय आतंकवाद' और 'भारतीय बर्बरता' !

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'भारतीय आतंकवाद' और 'भारतीय बर्बरता' !  क्या यह शब्द आपने पहले सुने थे, यहां मुस्लिम या हिन्दु आतंकवाद की बात नहीं हो रही है.. विश्व समुदाय संगठन 'ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कॉर्पोरेशन' ने कहा है कि भारत प्रशासन जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद और बर्बरता मचा रहा है। यह बात दुनिया के 57 देशों के उस संगठन ने कही है, जिस संगठन को यूनाइटेड नेशंस के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इंटरगर्वनमेंटल ऑर्गनाइजेशन माना जाता है। पिछले सप्ताह अभिनंदन की वापसी के अगले ही दिन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज आबूधाबी पहुंचीं, ओआईसी समिट में बतौर विशिष्ठ अतिथि। भारत में माना गया कि जो काम पिछले 50 साल में नहीं हुआ, वह अब संभव हो सका , पाकिस्तान के विरोध के बावजूद आयोजक देश सऊदी अरब ने भारत को निमंत्रण भेजा, वह भी विशिष्ठ अतिथि के रूप में..,। इतनी बड़ी तादाद में मुस्लिम आबादी के भारत में रहने के बावजूद भी भारत को इस महत्वपूर्ण संगठन में सदस्य या ऑब्ज़र का तक स्थान नहीं मिल सका है। लेकिन पिछले वर्षों से उलट इस साल ओआईसी ने पाक को अनसुना करके भारत को बुलाया ।  सुषमा स्वराज के वहां पहुंचने औ

यह मुर्दा शांति खत्म होनी चाहिए...

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अजीब मुर्दा शहर है यह... छोटे शहरों से आए लोग ही यहां की पॉश कॉलोनियों में बसते हैं और अपनी असलियत भूलकर बड़े शहरी हो जाते हैं। आज गली में कंडों का धुआं जल रहा था, कई लोग इकट्ठे दिखे, अखबार उठाने बाहर निकली तो सुनसान रहने वाली गली में इतने लोगों को देखकर खटका हुआ, आगे जाकर देखा तो पता लगा कोई सुहागिन सिधार गई। सुहागिन .... क्योंंकि अंतिम यात्रा के लिए उन्हें अंतिम बार उसी तरह सजाया जा रहा था, लाल चुनरी में। कुछ देर वो रुदन देखकर लौटी तो फिर से तेज- तेज बज रहे गाने कान में पड़ने लगे। सामने के मकान में खड़ी एक महिला को पूछा कि क्या आपके यहां music बज रहा है ? उनके मुंह से 'नहीं ' और मेरे मुंह से ' इस वक़्त न बजाएं तो अच्छा है.. ' एकसाथ निकला। उन्हें बताया कि दो घर आगे किसी की मौत हो गई है, उनके मुंह से ' ओह ' निकला और उन्होंने उंगली से इशारा किया । ... उनकी उंगली का इशारा मेरी ही बिल्डिंग के मेरे ही रूम से निचली मंजिल वाले कमरे की ओर था ! वहां रह रहे लोग बाहर नहीं निकले होंगे, इसलिए शायद उन्हें इस घटना का आभास नहीं... । गाने अब भी बज रहे हैं, रुदन खत्म हो चुका ह