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अक्तूबर, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मेरा इतबार ...

मुझे आज भी दोनों पैर से भागना नहीं आता .... जैसे दूसरे बच्चे भागते थे जी भी ........ जिसमें एक पैर को आगे करके फिर दूसरे पैर को थोड़ा तिरछा करके उसके पीछे रख कर भागते हैं... पता नहीं समझा पा रही हूँ या नहीं .... शायद नहीं । ... अगर ठीक से समझ गयी होती तो भागना आ गया होता और समझा भी पाती  । तब रामू चाचा होते थे ..... अब तो सालों से उन्हें नहीं देखा .... इतबार की शाम को हमें पल्ले घर से अपने घर लेने आते .... मम्मी इंतज़ार कर रही होती थीं ना , क्योकि मैं और जी तो शनिवार को स्कूल से ही चले जाते पल्ले घर।    वहाँ रात में विलायती बाबू देखते .... फिर बाबा के साथ समाचार भी... । उसका नाम 'प्रादेशिक समाचार' होता था...जिसका मतलब मैंने तब  पूरी तरह जाना जब अखबार की 'प्रादेशिक डेस्क' पर काम सीखने का मौका मिल रहा है । खैर .... तो हम समाचार देखते .... फिर रात वाली पिक्चर भी। हम .... मतलब मैं, जी , बुआ , चाचा ... , जी हमेशा अम्मा वाली खटिया पर उनके साथ लेटके देखती .... मैं पता नहीं कहाँ... याद नहीं । लेकिन बुआ रात में पढ़ती थी शायद ....उनके पास एक महरूम रंग (मुझे बीएससी में जाकर पता लगा

इंतज़ार की अमावस्या......

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पानी के दो घूंट तो शायद नहीं उतरेंगे आज भी हलक से मेरे... हथेलियों में मेहंदी नहीं लगाऊँगी तो भी पिछले बीते सालों की वो पीली खुशबू आज भी उतर ही आएगी हथेलियों में अपने आप। तुम्हारी यादों के प्यासे उपवास में चंद उतर आने तक घुटन इतनी बढ़ चुकी होगी कि आँसू अंदर तक गला तर करने में कामयाब हो ही जाएंगे .... और इस तरह तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी यादों कि दीर्घ आयू का ये व्रत , मैं पूरा कर पाऊँगी ॥ साल दर साल बढ़ते देखा चाँद का ये नटखटपन आज जाने क्यों लगा खत्म हो गया हो! तुम जब थे मेरे पास तो ये चाँद तुम्हारे चाँद को इंतज़ार की अमावस्या में,  दीदार की चाँदनी के लिए कितना तड़पता था, .....  तुम पास बैठे मुझे निहारते  रहते,   और आसमान में घूरकर नदारद चाँद पर गुस्सा करते। मैं चाँद कि इस शरारत पर हंस देती , तो कभी तुम्हारी नाक पर रखे उस गुस्से पर प्यार आता मुझे .... ॥ आज छत पर नहीं जा सकी , जलेबियों कि मिठास से भरी ... वो हर साल बीती पिछली रात याद आ रही थी । पटाखों कि आवाज़ और ' जल्दी ऊपर आओ' का शोर ... आज बेमानी लग रहे थे मुझे । फिर भी हिम्मत करके सीढ़ियाँ सीढ़िय

बस यूं ही .....

कई लोग हमेशा ज़िंदगी भर एक से ही रहना चाहते है , बिलकुल पहले जैसा .... बिना किसी बदलाव के। सोचो तो लगता है... जैसे किसी बंद कुएँ में रहने वाले लोग है शायद ये! पर थोड़ा समझने की कोशिश करो तो पता चलता है... कि नहीं, गलती यही है कि हम पूरा वक़्त लोगों को परखने में ही लगा देते है ...। ये वो हैं जो हर दम बदलते लोगों से परेशान हो चुके हैं और खुद को उसी फेहरिस्त में नहीं देखना चाहते।  बदलना प्रकृति का नियम है ....लेकिन क्या सच में इस नियम से इतनी आसानी से संतुष्ट हुआ जा सकता है । जो भी हमारे बस में हो ... हम हमेशा उसे अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिश करते हैं जो नहीं रख पाते वो प्रोफ़ाइल ...मोबाइल ...स्क्रीन सेवर ....रिंगटोन जैसी तमाम चीजों को ठीक वैसा रखने की कोशिश कर मन बहला लेते हैं ...। 'शट द पास्ट ... कट द फ्युचर...बी इन प्रिसेंट' सुनना बड़ा आसान है... लेकिन पिछली ज़िंदगी के पलों में जीकर आज गुज़ार रहे लोगों के लिए ये कोई कम बड़ा श्राप नहीं है। पहले जैसा बना रहना असल में कोई कुंठा नहीं , पुरानी ख़ुशबुओं को खुद में समेटे रहने की अजीब सी जुगत  है .... जो पहली और आखिरी नज़र में पागलपन ही कर

असहमति की स्वतंत्रता समझें अभिव्यक्ति के पैरोकार ...

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बीते महीने हिन्दी दिवस पर एक लेखक द्वारा मुख्यमंत्री अखिलेश के पैर छूने की घटना सामने आयी । तब सवाल उठा की आज पूंजीवाद की ओर बढ़ रही व्यवस्था में सामाजिक चेतना के प्रणेता भी नेता और सत्ता की लल्लो-चप्पो करने में लग गए हैं । इस बीच बीते पखबाड़े साहित्यकारों ने घुटती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए विरोध करना शुरू किया। कलम को हथियार बना विरोध जताने वाले लेखकों का साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा विरोध को एक नया स्वरूप देना कइयों को अखरा। सवाल उठने लगे की क्या लेखक कलाम से चुक गए हैं। जो इस तरह अपनी ही साहित्य अकादमी का अपमान का विरोध दर्ज करने का तटकरम कर रहे हैं । इस बीच कई मीडिया संस्थान बकायदा लेखकों के विरोध को विशेष पार्टी द्वारा प्रायोजित बताकर ...केन्द्रीय सत्तारूण पार्टी के मीडिया प्रवक्ता की भूमिका बख़ूबी निभाने लगे हैं। सच चाहें जो भी हो, सवाल खड़ा होता है की क्या आज वाकई हम सिर्फ वही सुनना और देखना चाहते हैं जो हमारी विचारधारा के अनुरूप है ...? ऐसा नहीं है कि आज के हालत हिंदुस्तान के लिए नए हैं । इन्दिरा गांधी के आपातकाल में भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुच

साइकिल के बहाने कुछ स्‍मरण और एक पछतावा / वीरेन डंगवाल

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तब जवान होते लड़के की तमन्‍ना होती थी एक नई सायकिल और एक घड़ी प्रत्‍यक्षतः लड़कियों का नम्‍बर इसके बाद आता था. अक्‍सर गंभीर लोग साइकिल का हैण्‍डल थाम लम्‍बे विचार-विमर्श करते थे और दिलदार नौजवान हाथ छोड़कर साइकिल चलाने तथा ऐसे ही कुछ अन्‍य सृजनात्‍मक करतबों से आमतौर पर समवयस्‍क समाज और खासतौर पर मुंडेरों से झांकती कन्‍याओं के दिलों पर अपनी अलग छापें छोड़ते अथवा छोड़ने की चेष्‍टा करते थे दिल तब भी यहीं होता था कमबख्‍त बायें पहलू में पंजर के नीचे मगर उसके जोर-जोर से धड़कने की वजहें तनिक और नादान होती थीं अकस्‍मात् एक रात आता थ आषाढ़ युवा तड़तड़ाहट से भरा चने या छर्रों जैसी बूंदों को पटपटाता मच्‍छरदानियां खटपटाते-समेटते उनींदे लोग भागते भीतर वर्षा के हर्ष और झींख से एक साथ भरे हुए बेघरों के लिए तब शहरों में भी भारी दरख्‍तों के शरण्‍य ही थे रेलवे स्‍टेशनों पर भी हालांकि गुंजाइश रहती थी रात एक बजे भी रिक्‍शों पर बिस्‍तरबंद बक्‍से लादे आने वाले रिश्‍तेदारों को कोई संकोच नहीं होता थ हर दो-तीन मुहल्‍लों का अपना एक आत्‍मीय पागल होता था वक्‍त-बेवक्‍त-कभी-

चुप्पी तोड़ें गांधी वादी ...

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आज किताबी हो चुके बापू के जीवनपथ पर हम में से कई बात नहीं करना चाहते ....बापू हिन्दू आतंकवाद पैदा कर रहे लोगों के लिए सिर्फ बँटवारे और भगत सिंह को फांसी पर लटकाने का कारण भर रह गए हैं ......।  बिना उस देश कल वातावरण में पैदा हालातों को ध्यान रख लोग उन्हे नौटंकी करार देते हैं । जिनके पास इन इल्जामों के तथ्यपरक जबाव हो सकते हैं ... उनको कभी बोलते नहीं देखा। शायद ये भी बापू की अहिंसा के पाठ को जीने का तरीका होगा ... लेकिन इस विषय पर ऐसे लोगों को अपना पक्ष ज़रूर रखना चाहिए । चुप्पी कई बार मौन समर्थन बन जाती है ... सालों से बापू को लेकर जो कुछ भी प्रसारित किया जा रहा है , उसमें ये चुप्पी हामी बनती जा रही है ...।  मैं नहीं कहती कि  गांधी वादी विचारक भी दूसरे संगठों के जैसे हो हल्ले में फंस जाए ...लेकिन वे कम से कम लगातार अपनी ज़मीन मजबूत कर रहे भ्रम को तोड़ने की कोशिश तो करें ... युवाओं का पथ विचलन बहुत आसान है ... आज जिस तरह तथाकथित युगपुरुष और फ़ांसीवाद होती राजनीति को लेकर युवा उत्साही दिख रहा है ...ऐसे अपने में खोये आत्म प्रचार के  शिकार युवा का गांधीस्म से साक्षात्कार करना आज देश की ज़रू