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An open latter to the Mr. President

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राष्ट्रपति जी , जन्मदिन की बधाई शिक्षक दिवस पर आपको जानने का मौका मिला । आपसे हुई उस शुरुआत ने मेरे अंदर कुछ बदलने की शुरुआत की। उससे पहले तक मेरे लिए आज़ादी की परिभाषा कुछ और थी। उस दिन लोकतन्त्र की परिभाषा समझते हुए आपने मुझे 'व्यक्तिगत लोकतंत्र' के करीब ला दिया। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ आज़ादी नहीं , लोकतंत्र मतलब अपने लिए नियम बनाकर उसके अनुसार जीना । यानी आज़ादी का मतलब भी नियमों का पालन... , अपने बनाए नियमों का पालन। साथ ही दूसरों द्वारा अपने लिए बनाए नियमों की सुरक्षा की सजगता भी है । इसे व्यक्तिगत स्तर पर देखते हुए मेरे मन में  'व्यक्तिगत लोकतंत्र' या 'Individual's Democracy' शब्द आया। दिमाग में आने ज़्यादातर विचार पुराने अनुभव  आ  आसपास सुनी बातों के आधार पर ही पनपते है,  यही सोचकर  गूगल पर  यह शब्द खंगाला। पर फिलहाल  मुझे  'व्यक्तिगत लोकतंत्र'  पर पहले  से लिखी कोई  व्याख्या  या तथ्य नहीं मिल सका है, इसलिए अपने हिसाब से 'व्यक्तिगत लोकतंत्र' को अपनी सुझाई 'व्यक्तिगत लोकतंत्र' को आपकी सुझाई लोकतंत्र की परिभाषा

बाप का मारना ....

कई घरों में माँ भी मरती है बच्चे तब भी अनाथ होते हैं । लेकिन बेटी संभाल लेती है ज़िम्मेदारी पढ़ाई छोड़ कर गेहूं बीनने से आचार डालने तक गृहस्थी में माहिर हो जाती है खुद ब खुद । भाई और बाप को खलता है बस उसकी शादी के बाद। पर कुछ समय में एक और लड़की बहू बनकर गृह प्रवेश कर जाती है उनके जीवन में । बाप को कभी नहीं दिखना पड़ता शक्ल से विधुर । पर जब बाप मरते हैं घरों में , बेरंग जीवन की सफेदी माँ से लिपट जाती है उम्र भर के लिए । लड़कियां इस बार भी कैद झेलने को होतीं है बेबस । जल्दी शादी और मोटे दहेज की चिंता में , स्कूल की फीस कहाँ निकल पाती है भाई की कमाई में ......... ॥   माओं को कब दिया होता है हुनर , उनके बाप ने रुपये कमाने का । बिना जेब के कपड़ों का कारण माएँ कहाँ समझ पाएँगी कभी । आदमी के सिधरते ही बेटे के सर मढ़ना होगा उन्हें । बेटे के लिए इसलिए ही बोझ हो जाती है माँ और बहन ....... उसका बचपन भी तो छिनता है अचानक ही , बाप मरते ही छोड़ जाता है जिम्मेदारियों का पहाड़ । पित्रासत्ता नोच देती है खुद लड़के का ही जीवन । अगर बेटियाँ पढ़ें

मेरा इतबार ...

मुझे आज भी दोनों पैर से भागना नहीं आता .... जैसे दूसरे बच्चे भागते थे जी भी ........ जिसमें एक पैर को आगे करके फिर दूसरे पैर को थोड़ा तिरछा करके उसके पीछे रख कर भागते हैं... पता नहीं समझा पा रही हूँ या नहीं .... शायद नहीं । ... अगर ठीक से समझ गयी होती तो भागना आ गया होता और समझा भी पाती  । तब रामू चाचा होते थे ..... अब तो सालों से उन्हें नहीं देखा .... इतबार की शाम को हमें पल्ले घर से अपने घर लेने आते .... मम्मी इंतज़ार कर रही होती थीं ना , क्योकि मैं और जी तो शनिवार को स्कूल से ही चले जाते पल्ले घर।    वहाँ रात में विलायती बाबू देखते .... फिर बाबा के साथ समाचार भी... । उसका नाम 'प्रादेशिक समाचार' होता था...जिसका मतलब मैंने तब  पूरी तरह जाना जब अखबार की 'प्रादेशिक डेस्क' पर काम सीखने का मौका मिल रहा है । खैर .... तो हम समाचार देखते .... फिर रात वाली पिक्चर भी। हम .... मतलब मैं, जी , बुआ , चाचा ... , जी हमेशा अम्मा वाली खटिया पर उनके साथ लेटके देखती .... मैं पता नहीं कहाँ... याद नहीं । लेकिन बुआ रात में पढ़ती थी शायद ....उनके पास एक महरूम रंग (मुझे बीएससी में जाकर पता लगा

इंतज़ार की अमावस्या......

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पानी के दो घूंट तो शायद नहीं उतरेंगे आज भी हलक से मेरे... हथेलियों में मेहंदी नहीं लगाऊँगी तो भी पिछले बीते सालों की वो पीली खुशबू आज भी उतर ही आएगी हथेलियों में अपने आप। तुम्हारी यादों के प्यासे उपवास में चंद उतर आने तक घुटन इतनी बढ़ चुकी होगी कि आँसू अंदर तक गला तर करने में कामयाब हो ही जाएंगे .... और इस तरह तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी यादों कि दीर्घ आयू का ये व्रत , मैं पूरा कर पाऊँगी ॥ साल दर साल बढ़ते देखा चाँद का ये नटखटपन आज जाने क्यों लगा खत्म हो गया हो! तुम जब थे मेरे पास तो ये चाँद तुम्हारे चाँद को इंतज़ार की अमावस्या में,  दीदार की चाँदनी के लिए कितना तड़पता था, .....  तुम पास बैठे मुझे निहारते  रहते,   और आसमान में घूरकर नदारद चाँद पर गुस्सा करते। मैं चाँद कि इस शरारत पर हंस देती , तो कभी तुम्हारी नाक पर रखे उस गुस्से पर प्यार आता मुझे .... ॥ आज छत पर नहीं जा सकी , जलेबियों कि मिठास से भरी ... वो हर साल बीती पिछली रात याद आ रही थी । पटाखों कि आवाज़ और ' जल्दी ऊपर आओ' का शोर ... आज बेमानी लग रहे थे मुझे । फिर भी हिम्मत करके सीढ़ियाँ सीढ़िय

बस यूं ही .....

कई लोग हमेशा ज़िंदगी भर एक से ही रहना चाहते है , बिलकुल पहले जैसा .... बिना किसी बदलाव के। सोचो तो लगता है... जैसे किसी बंद कुएँ में रहने वाले लोग है शायद ये! पर थोड़ा समझने की कोशिश करो तो पता चलता है... कि नहीं, गलती यही है कि हम पूरा वक़्त लोगों को परखने में ही लगा देते है ...। ये वो हैं जो हर दम बदलते लोगों से परेशान हो चुके हैं और खुद को उसी फेहरिस्त में नहीं देखना चाहते।  बदलना प्रकृति का नियम है ....लेकिन क्या सच में इस नियम से इतनी आसानी से संतुष्ट हुआ जा सकता है । जो भी हमारे बस में हो ... हम हमेशा उसे अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिश करते हैं जो नहीं रख पाते वो प्रोफ़ाइल ...मोबाइल ...स्क्रीन सेवर ....रिंगटोन जैसी तमाम चीजों को ठीक वैसा रखने की कोशिश कर मन बहला लेते हैं ...। 'शट द पास्ट ... कट द फ्युचर...बी इन प्रिसेंट' सुनना बड़ा आसान है... लेकिन पिछली ज़िंदगी के पलों में जीकर आज गुज़ार रहे लोगों के लिए ये कोई कम बड़ा श्राप नहीं है। पहले जैसा बना रहना असल में कोई कुंठा नहीं , पुरानी ख़ुशबुओं को खुद में समेटे रहने की अजीब सी जुगत  है .... जो पहली और आखिरी नज़र में पागलपन ही कर

असहमति की स्वतंत्रता समझें अभिव्यक्ति के पैरोकार ...

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बीते महीने हिन्दी दिवस पर एक लेखक द्वारा मुख्यमंत्री अखिलेश के पैर छूने की घटना सामने आयी । तब सवाल उठा की आज पूंजीवाद की ओर बढ़ रही व्यवस्था में सामाजिक चेतना के प्रणेता भी नेता और सत्ता की लल्लो-चप्पो करने में लग गए हैं । इस बीच बीते पखबाड़े साहित्यकारों ने घुटती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए विरोध करना शुरू किया। कलम को हथियार बना विरोध जताने वाले लेखकों का साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा विरोध को एक नया स्वरूप देना कइयों को अखरा। सवाल उठने लगे की क्या लेखक कलाम से चुक गए हैं। जो इस तरह अपनी ही साहित्य अकादमी का अपमान का विरोध दर्ज करने का तटकरम कर रहे हैं । इस बीच कई मीडिया संस्थान बकायदा लेखकों के विरोध को विशेष पार्टी द्वारा प्रायोजित बताकर ...केन्द्रीय सत्तारूण पार्टी के मीडिया प्रवक्ता की भूमिका बख़ूबी निभाने लगे हैं। सच चाहें जो भी हो, सवाल खड़ा होता है की क्या आज वाकई हम सिर्फ वही सुनना और देखना चाहते हैं जो हमारी विचारधारा के अनुरूप है ...? ऐसा नहीं है कि आज के हालत हिंदुस्तान के लिए नए हैं । इन्दिरा गांधी के आपातकाल में भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुच

साइकिल के बहाने कुछ स्‍मरण और एक पछतावा / वीरेन डंगवाल

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तब जवान होते लड़के की तमन्‍ना होती थी एक नई सायकिल और एक घड़ी प्रत्‍यक्षतः लड़कियों का नम्‍बर इसके बाद आता था. अक्‍सर गंभीर लोग साइकिल का हैण्‍डल थाम लम्‍बे विचार-विमर्श करते थे और दिलदार नौजवान हाथ छोड़कर साइकिल चलाने तथा ऐसे ही कुछ अन्‍य सृजनात्‍मक करतबों से आमतौर पर समवयस्‍क समाज और खासतौर पर मुंडेरों से झांकती कन्‍याओं के दिलों पर अपनी अलग छापें छोड़ते अथवा छोड़ने की चेष्‍टा करते थे दिल तब भी यहीं होता था कमबख्‍त बायें पहलू में पंजर के नीचे मगर उसके जोर-जोर से धड़कने की वजहें तनिक और नादान होती थीं अकस्‍मात् एक रात आता थ आषाढ़ युवा तड़तड़ाहट से भरा चने या छर्रों जैसी बूंदों को पटपटाता मच्‍छरदानियां खटपटाते-समेटते उनींदे लोग भागते भीतर वर्षा के हर्ष और झींख से एक साथ भरे हुए बेघरों के लिए तब शहरों में भी भारी दरख्‍तों के शरण्‍य ही थे रेलवे स्‍टेशनों पर भी हालांकि गुंजाइश रहती थी रात एक बजे भी रिक्‍शों पर बिस्‍तरबंद बक्‍से लादे आने वाले रिश्‍तेदारों को कोई संकोच नहीं होता थ हर दो-तीन मुहल्‍लों का अपना एक आत्‍मीय पागल होता था वक्‍त-बेवक्‍त-कभी-

चुप्पी तोड़ें गांधी वादी ...

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आज किताबी हो चुके बापू के जीवनपथ पर हम में से कई बात नहीं करना चाहते ....बापू हिन्दू आतंकवाद पैदा कर रहे लोगों के लिए सिर्फ बँटवारे और भगत सिंह को फांसी पर लटकाने का कारण भर रह गए हैं ......।  बिना उस देश कल वातावरण में पैदा हालातों को ध्यान रख लोग उन्हे नौटंकी करार देते हैं । जिनके पास इन इल्जामों के तथ्यपरक जबाव हो सकते हैं ... उनको कभी बोलते नहीं देखा। शायद ये भी बापू की अहिंसा के पाठ को जीने का तरीका होगा ... लेकिन इस विषय पर ऐसे लोगों को अपना पक्ष ज़रूर रखना चाहिए । चुप्पी कई बार मौन समर्थन बन जाती है ... सालों से बापू को लेकर जो कुछ भी प्रसारित किया जा रहा है , उसमें ये चुप्पी हामी बनती जा रही है ...।  मैं नहीं कहती कि  गांधी वादी विचारक भी दूसरे संगठों के जैसे हो हल्ले में फंस जाए ...लेकिन वे कम से कम लगातार अपनी ज़मीन मजबूत कर रहे भ्रम को तोड़ने की कोशिश तो करें ... युवाओं का पथ विचलन बहुत आसान है ... आज जिस तरह तथाकथित युगपुरुष और फ़ांसीवाद होती राजनीति को लेकर युवा उत्साही दिख रहा है ...ऐसे अपने में खोये आत्म प्रचार के  शिकार युवा का गांधीस्म से साक्षात्कार करना आज देश की ज़रू

खाली बोतल

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  हलचल से हादसों तक, तलहके से सन्नाटों तक। आबादी में पसरी बीरानियां, और खाक में मिली ख्वाहिशें। रोंगटे खड़े कर देती, अपाहिज सी आवाजें दिल में आते उन तमाम खतरनाक ख्यालों के बीच अपनों को पहचानने की कोशिश में ये निगाहें... खोजती हैं.. चौराहे से घर को जाती गली के नुक्कड़ पर खड़े आम के पेड़ को। उस पुरानी शानदार हवेली के फाटक को, जिस पर लटकते, झूला झूलते, खिसियाए उस दरबान के डंडे से भगाने पर, चूरन वाले चाचा की दुकान के मुहाने पर.. घंटों बैठ,,, उन आशाओं के झुरमुट जैसी ऊंची इमारतों को अपना बनाने का ख्वाब कभी देखा था मैंने। आज उन्हीं इमारतों के दरार पड़कर ढह जाने पर, ख्वाब जैसे किरची-किरची खिड़की के टूटे कांच की तरह बिखर से गए हैं। तबाही के और भी निशां हैं आसपास। मगर पैर हैं कि जैसे आगे बढ़ना ही नहीं चाहते। जकड़ से गए हो, जैसे आसपास ही कहीं किसी मृत शरीर से रूबरू होने का डर सता रहा हो।। तभी किसी बिलखते मासूम ने जकड़े पांव में जान से भर दी। अटे-पड़े शव, दबे-कुचले पांव के बीच जिंदगी का एक निशां हिम्मत बंधा गया। मृत मां की गोद में सुरक्षित यह

एक माह बाद आज .....

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                बची-खुचीं उम्मीदों को भी आज सरकारी क़फन में दफन कर दिया जाएगा। आखिर डूब ही जाएंगे  आशा के अधबुझे दीप भी आज उस जलजले के बाद  आंखों में रोज आ उठती भयानक बाढ़ में। हर रोज तुम्हारे जिंदा होने की मुर्दा होती मुरादों  जुबां से निकलने को तैयार न होते अंदेशों के बीच आज पूरी तरह से खो चुकी होऊंगी मैं तुम्हें। ..और तुम्हारे इस अंतिम संस्कार के बाद अस्थियों की जगह मुआवजे के कुछ सरकारी पैसे  रख दिये जाएंगे मेरे हाथों पर..!! उस विनाश लीला के एक माह बाद आज, पूरी तरह से बंजर और अकेला हो जाऊंगा मैं जिंदगी भर के लिए। उस तूफान में अपनी पीढ़ियों को  अचानक समाहित होते देखने का वो भयावह मंजर अब किसी रोज मेरे अंतिम दिन का कारण बनेगा।  पर कोई शेष न होगा मुझे मुखाग्नि देने के लिए भी। तब मेरे बच्चों,  कहीं किसी पहाड़ी पर  चील कौवे की नोंची तुम्हारी लाशों के बदले  मिली मुआवजे की रकम से ही शायद मुझे इंतजाम करना पड़ेगा.. खुद ही अपने अंतिम संस्कार का।   अब सकट, राखी और करवाचौथ पर, आंखों की नमी में, हलक में अटके कुछ शब्दों में, भारतीय सेना के फौलादी जज्बों में खानापूरी करते

पागल लड़कियां ............

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                                                            लड़कियां असल में पागल होती हैं,                                                             डांट पिटाई पर बस हंस देती ,                                                             कोई लाड़ करे तो रोती हैं।                                                             जो डरा सके उसे बड़ा समझती,                                                             कैद को सुरक्षा कहतीं हैं।                                                             खुद के लिए खुद ही सीमाए बोती,                                                             फिर सीमाओ को किस्मत कहतीं हैं।                                                             असल में लड़कियां पागल होती हैं...!                                                                      - शिवांगी                                                                            (11 जुलाई 2015)

'लड़कियां' ...उनकी नजर में

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  आज कुछ कुल्टाए मिली, कुछ चरित्रहीन भौंड़ी सी लड़कियां भी। अतिविश्वास की मारी घूम रही थी, सड़क बाजार के अलावा भी कई जगह। मैंने बस नजर उठाकर देखा भर, और अपनी औकात बता दी इन्हें। अब सिर्फ टीचर नहीं रह गई हैं ये, दफ्तरों के रिसेप्शन से सीईओ की कुर्सी तक काबिज़ है। जब भी मिलता हूँ तो पहले चरित्र नापता हूँ, बड़े ओहदे वालियों की मुस्कानों में, छिपा देखता हूँ वो रास्ता जिससे यहां तक पहुंची होंगी। खुद की क्षमता का डंका , पीटने में भले माहिर होती हैं ये। लेकिन जानता हूँ मैं, हमारी सेवा बिना कहां पहुंचने वाली हैं ये कहीं। हर रोज ऐसी ही कहानियां भरता हूँ, माँ और बहन के कानों में, ताकि चेता सकूं कि 'घर में ही बैठो' ।। - शिवांगी (15/07/15)

औरत का अस्तित्व क्यूँ बस इज्ज़त भर ......

तुम्हे देखके ऐसा लगा कि कोई गांव की औरत सर ढांके बैठी हो....! पास बैठी एक लड़की पर ये तंज सुन जाहिर तौर पर सबकी तरह प्रतिक्रिया दी मैंने भी। मगर फिर एक ने कहा कि क्या तुम्हारी मां-बहन पर्दा नहीं करती?! (लगा कि पर्दा जैसे कथित इज्जत का सर्वमान्य परिचायक हो)..। बात यहां तक भी ठहरती तो ठीक था... 'सर क्या आपकी मां-बहन मिनी स्कर्ट में रहती हैं?'.... लड़की का कसैला सवाल... सुनने बालों में से कुछ नें मन में तो कुछ ने मुंह पर बोला...'बहुत अच्छे'।वो व्यक्ति खुद की खिल्ली पर चुप था... और वो लड़की अब बराबरी पर संतुष्ट दिखी। ...बात यहीं खत्म हो जाती तो क्या बात थी। अचानक छोटी बहन के पहले दिन डिग्री कालेज जानें का अनुभव याद आया....। 'अपनी मां-बहन को घर भेजना, मेरा भाई अच्छी सेवा करेगा उसकी...' उसने साइकिल से वापस आते समय एक लड़के को जवाब देते हुए बोला था। लड़के ने छेड़ते हुए सेवा का मौका देने की बात कही थी उसे । मैंने सुना तो डांटा उसे... बोली घर में तो सबनें मुझे 'वेरी गुड...ब्रेव गर्ल कहा'.. फिर आप इसे गलत क्यूं कह रही हो?!... छोटी बहन और वो लड

क्या है शिक्षा के अधिकार के सही मायनें .....?

                                                                                                                       8.sep.2015 बरेली में आज कथित युवा सोच वाले सीएम आ रहे हैं। स्मार्ट सिटी बरेली के चुस्त नगर निगम की सक्रियता इन दिनों चरम पर है, जिसे देख कोफ्त हो रही थी। लेकिन आज मुख्यमंत्री आगमन के चलते शिक्षण संस्थानों को बंद कर देना असंवेदनशीलता की हद है, जिस पर मुझे कड़ी आपत्ति है । सरकारें शिक्षा पर संवेदनशील दिखने की लाख कोशिश करें... लेकिन ये वाहियाद स्तर तक असंवेदनशील हैं। मानसिक रूप से अनपढ़ शिक्षाधिकारी क्यूं इन सामंती आदेशों का विरोध नहीं करते! एक दिन स्कूल की छुट्टी क्यूं हमें आम सी बात लगत ी है। स्कूल जैसी संस्थाए तो भीषण तबाही भरे दौर में भी चलनी चाहिए। एक राजनेता का आगमन भर क्यूं शिक्षण संस्थानों को सबसे पहले प्रभावित करता है? इसका जवाब सुरक्षा है तो जानना चाहूंगी कि आम दिनों में कितनों स्कूल की सुरक्षा के लिए पुलिस तैनात रह पाती है.... हो सकता है मेरी बात पागलपन लगे, हो सकता है...ये अवकाश किसी परिवार को एक दिन का सुकून दे जाए...या छात्र और शिक्षकों की

सनकी दुनिया

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  आज़ादी की छटपटहट ...... ( पेंटर शिबली की ये पेंटिंग खरीद पाना मुश्किल था सो फोटो ही ले पायी)  ज़िंदगी सनक है ...एक ज़िद भी, जिसे घर में मक्कारी कहते हैं। बागीपन खून में नहीं होता , रिश्तों में विश्वास का घटा प्रतिशत, चुपके से बना जाता है बागी ॥ जब बदलती सोच, छितरा देती है परिवार से। लक्ष्य हो जाते जीने का मात्र कारण। स्वार्थी सुनना आम सा लगता, ज़िंदगी बेचैन लेकिन स्थिर होती है तब॥ कविताओं से गायब होता रस, सपनों में आती हक की लड़ाई ... तब पागलपन लगती ज़िंदगी, परम्पराओं से उचटा मन, चुप्पी साधना समझता बेहतर॥ सनकी दुनिया की बेचैन ख्वाहिशे, दूसरों से सिकुड़ खुद में फैलता जीवन, अपनी ही दुनिया होती तब। ऐसी सनकी दुनिया जिसका वास्ता , नहीं करना चाहती तुमसे कभी ॥                     - शिवांगी (29/08/2015)

'इज्ज़त लुटना' .... स्वीकार्य नहीं ।

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  'इज्ज़त लुटना' इस शब्द का इस्तेमाल दुष्कर्म या बलात्कार को सभ्य ढंग से कहने के लिए किया जाता है। लेकिन किसी का शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न उसकी इज्ज़त कैसे लूट सकता है। असल में ये एक सोची समझी साजिश के तहत नियोजित शब्द है।  लड़की को रोकना है तो पहले उसे बताओ की उसमे क्षमताएँ नहीं, फिर भी हठधर्मिता दिखा कर बाहर निकले तो उसकी शारीरिक बनावट को नोच डालो । उसके अस्तित्व को पिता, भाई और पति की इज्ज़त से जोड़ दो। उसके शरीर की विशेष बनावट को सुरक्षा का मुद्दा बना दो। फिर इज्ज़त और सुरक्षा के नाम पर उसे घर बैठाओ । फिर भी कदम बाहर आए तो उसके शरीर में अपने-अपने हिस्से की खोज करते गिद्ध बन जाओ ..., गैंग रेप करो। दहशत जितनी फैलेगी इज्ज़त लुटने का डर उतना बढ़ेगा । कैद थीं जो, फिर कैद हो जाएंगी और पुरुष सत्ता का वर्चस्व सर्वस्व रहेगा। 'इज्ज़त लुटना' शब्द के इस्तेमाल के पीछे की इस वजह पर शायद कोई ध्यान नहीं देना चाहता। औरत का शारीरिक और मानसिक शोषण जघन्य है, लेकिन इसे इज्ज़त लुटने से जोड़ना अस्वीकार्य है। लड़की की इज्ज़त किसी दूसरे इंसान की तरह ही उसके आत्मसम्मान से जुड़ी है, उसके कौमार्य क